जेंडर आधारित भेदभाव व मान्यताओं पर साकारात्मक सोच पनप रही है पुरूषों में भी......

हर गंदी वाली बात में औरत का होना जरूरी नहीं......
-इन्द्रमणि साहू
पिछले एक-डेढ दशक से महिला आंदोलन, स्त्री विमर्श एवं स्त्री अस्मिता को लेकर चर्चा और बहस काफी तेज हैं। आंदोलनों में स्त्रियों की भूमिका को सामने लाने का खूब प्रयास किया गया। इसके कुछ अच्छे परिणाम भी आये। परंतु, हम पुरूषों की बस इतनी सी जिम्मेदारी व जवाबदेही नहीं है। बल्कि, पारम्परिक सोच जो वर्षो से अंदर समाया हुआ है। जिसके कारण औरत और मर्द के बीच आज भी सामाजिक भेदभाव है। उनकी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक भागीदारी हम जल्दी स्वीकार नहीं कर पाते हैं को दूर करने की आवश्यकता है। पंचायतों में चुने गये महिला प्रतिनिधियों की भावनाओं व सोच पर उनके पति का कब्जा है। हर गंदी वाली बात में औरत को ही निशाना बनाते हैं। समाज की सबसे बड़ी विडंबना है कि जो पूज्यनीय है, संवेदनशील हैं, शक्तिशाली हैं उसे ही गंदा और दोषी बताते हैं। सभी की सभी गालियां महिलाओं से ही जुड़ा हुआ है। स्त्री को सिर्फ हम ‘स्त्री‘ (सेक्स) की नजरिये से ही देख पा रहे हैं। इस अजीब मानसिकता के विरूद्ध अभी भी संघर्ष, वह भी अपने आप से बाकी है। तभी महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता और अस्मिता की रक्षा संभव है।
साहित्यकार आराधना मुक्ति अपनी एक कविता में लिखती हैं कि 
हर गंदी बातों में
औरतें जरूर होती हैं
बिना औरतों के
कोई बात गंदी नहीं हो सकती
क्योंकि समाज में फैली हर गंदगी
औरतों से जुड़ी होती है ..... 
आजाद औरत सबसे बड़ी गंदगी हैं
वो हंसकर बोले तो बदचलन
न बोले तो खूसट कहलाती हैं
पर वो.......
सामान्य व्यक्ति कभी नहीं हो सकती है
अकेले रहने वाली हर औरत
एक गंदी औरत है
और उसके बारे में
सबसे ज्यादा गंदी बातें होती हैं..... 
वास्तव में इस कविता में मार्मिक कड़वी, हतप्रभ करने वाली सच्चाई ब्यां किया गया है। जो हम पुरूषों के लिए एक आइना है। 
हम पुरूषों को मौजूदा हिंसा, गंदी वाली बात व अधिकार के परिपेक्ष्य को समझने एवं मूल्यों पर चर्चा, बहस, संवाद, वार्तालाप व विमर्श करने की जरूरत है। इसी जरूरत को फेम जैसे नेटवर्क एक मंच उपलब्ध करा रही है। विभिन्न राज्यों व जिलों में लिंग समानता, बाल अधिकार, पुरूषों की भागीदारी, सच्ची मर्दानगी, समता, समानता जैसे बिन्दुओं पर अभियान चलाकर संवाद व विमर्श प्रक्रियाओं को तेज किया है। पहले जहां ऐसे मसलों पर ज्यादातर नारीवादी महिलाऐं बहस करती थी। वहीं आज ज्यादातर हम पुरूष इसमें हिस्सा ले रहे हैं। हालांकि, यह बहुत ही कम है। स्त्री व पुरूष के बीच जो सामाजिक भेदभाव है जो हम मर्दो (पुरूषों) ने बनाया है को समझने के लिए व्यापक अभियान चलाने एवं विमर्श की आवश्यकता है।
 हालांकि, हर पुरूष हिंसक या क्रूर नहीं होते हैं। शायद यही कारण है कि हममें से कई पुरूष, पति, पिता या भाई आज उदाहरण व रॉल मॉडल बने हुए हैं। वे अपने बेटे-बेटियों में फर्क न कर एक ढंग से ही पालन-पोषण कर रहे हैं। लड़कियों को घर के अंदर का कामकाज सिर्फ न सिखाकर लड़कों की तरह उन्हें बाहर के कामों व मौजूदा अवसरों से भी वाकिफ करा रहे हैं। बेटियों को बेटों की माफिक मजबूत, ताकतवर, सख्त और होनहार समझ रहे हैं। वे सिर्फ नियंत्रक के रूप में नहीं बल्कि पत्नी, मां, बहन बेटी के साथ मिलकर न सिर्फ कामों में हाथ बंटाते हैं, भावनात्मक व बराबरी की बातें करते हैं, भावुक हैं, रोते भी है, खुलकर जेंडर आधारित भेदभाव को खुली चुनौती दे रहे हैं। हिंसा-क्रूरता जैसी व्यवहार से तौबा कर रहे हैं। ज्यादातर पुरूष अब यह समझने लगे हैं कि मौजूदा लैंगिक भेदभाव व असमानता का अधिकांश भाग प्रकृति ने नहीं बल्कि समाज ने पैदा किया है। हालांकि, अभी स्थिति में और सुधार की आवश्यकता है। पितृसत्तात्मक समाज के दोहरे नैतिक मापदंड़ों, मूल्यों व अंतर्विरोधों को समझने की कोशिश जारी है। मान्यताएं टूट रही हैं, सोच बदल रही है फिलहाल, यही काफी है। 

इन्द्रमणि साहू
(स्वतंत्र पत्रकार सह सचिव)
समर्पण
सुन्दरनगर, कोडरमा
9934148413






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